समाज

विशाल हिन्दू वैदिक धर्म में समय्-समय पर अवतारों, महापुरुषों व सन्तों का प्रादुर्भाव होता रहा है। सभी अवतारों, महापुरुषों व सन्तों का लक्ष्य प्रायः एक ही था तथापि देश, काल व प ने २९ नियमों वाले धर्म को पालन करने की शिक्षा अपने सात्रों के अनुसार धर्म की व्याख्या व बाह्यस्वरुप में अन्तर आना स्वाभाविक था।

श्री गुरु जम्भेश्वर भगवानजी आये हुये जिज्ञासुओं को दी। ये २९ धर्म नियम यद्यपि हिन्दू धर्म के प्राचीन ग्रंथो में किसी न किसी रुप में कम अथवा अधिक मात्रा में मिल जाते है।

तथापि "तीस दिन सूतक, पांच ऋतुवन्ति न्यारो । सेरा करो सिनाल शील्, सन्तोष शुचि प्यारी" आदि नियमों को ष्रुंखलाबध्द स्वरुप में प्राचीन विशनोई सन्तों ने श्री जम्भेश्वर भगवान के कथनानुसार ही किया थां।

स्वयं श्री जम्भेश्वर भगवान ने अपने अवतार का कारण बतलाते हुए शब्द नं.११८ में कहा है कि "प्रहलाद सूं वाचा कीवी, आयो बारा काजै, बारा में सूं एक घटे तो सूचेलो गुरु लाजै", अर्थात मैने न्रुसिंह अवतार के समय प्रल्हाद भक्त को वचन दिया था कि मै ३३ करोड अनुयायियों को क्र्मशः सतयुग, त्रेतायुग्, द्वापरयुग्, व कलयुग में बैकुंठ्-धाम पहुंचा दूंगा। सतयुग में भक्त प्रल्हाद के साथ पांच करोड्, त्रेतायुग में राजा हरिश्चंद्र के मध्यम से सात करोड्, द्वापर युग मे राजा युधिष्ठिर के माध्यम से नव करोड तथा कलियुग मे मैं स्वयं सन्तरुप अवतार धारणकर बारह करोड जीवों का उधार करुंगा । उअ बारह करोड जीवों के उधार के लिये मैंने धरातल पर अवतार धारण किया है। बारह करोड जीवों में से यदि एक जीव भी बैकुंठ के बिना रह जाएगा तो मुझे वचन पूरा न होने के कारण लज्जा होगी। श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान ने बारह करोड जीवों के उध्दार के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित कर सात्त्विक यज्ञ प्रारंभ किया। यज्ञ में ही उन्होंने परमात्मा के दर्शन करने की विधि बतलाई तथा संवत १५४२ के कार्तिक वदि-अष्ट्मी को यज्ञ के साथ ही पवित्र मिट्टी का घडा जल भरकर रखा। यज्ञ पूर्ण होने के बाद स्वयंनिर्मित मंत्रो से जल मंत्रित कर पाहळ बनाया और अपने समीप आए हुए सज्जनों पाहळ पिलाया। पाहळ पिलाकर गुरुमंत्र दिया तथा विष्णु भगवान का ध्यान बतलाया। आज हम श्री जम्भेश्वर भगवान को इष्ट गुरु व इष्ट परमात्मा मानते है।
उनकें शब्दों व मंत्रो से पवित्रता पूर्वक हवन कर पाहळ करते रहे हैं। पाहळ के द्वारा मानसिक व शारिरीक दोनों प्रकार की शुध्दी हो जाती है। श्री गुरु जम्भ्रेश्वर भगवान ने सबसे पहले समराथल धोरे के नीचे नडिये (छोटे तालाब्) पर पाहळ कर अपने अनुयायियों को पिलाया था। सबसे पहले पूल्हाजी को पाहळ दिया। ये जम्भोजी के चाचा (काका) भी लगते थे। उन्हें पाहळ देकर विशनोई सम्प्रदाय में दिक्षित किया। तत्पश्चात आये हुए श्रध्दालु सज्जनों ने पाहळ लेकर विशनोई सम्प्रदाय में दीक्षित होना प्रारम्भ किया। विशनोई सम्प्रदाय में दिक्षित होने के बाद यद्दपि प्राचीन अवतारों व महापुरुषों को प्रत्येक विशनोई आदर भाव से मानते थे तथापि पूजा केवल अग्नि देव कि हि करते थे। श्री जम्भेश्वर भगवान की आज्ञा के अनुसार प्रकाश स्वरुप सर्वशक्तिमान भगवान विष्णु का ध्यान करते व "ओ३म् विष्णु" इस मंत्र क जप करते थे। श्री देव के पास निव्रुत्तिमार्ग के उपासक संत व प्रव्रुत्तिमार्ग के उपासक ग्रुहस्थ सज्जन आकर आत्म कल्याण का मार्ग पूछा करते थे । श्री जम्भोजी की तपस्या व आत्मशक्ति का ऐसा अच्छा प्रभाव था कि व्यक्ति उनले पास आते ही अधर्म के कार्यो को छोडकर धर्म के कार्यो को सम्पादन करते हुए जीवन व्यतीत करने की प्रतिज्ञा कर लेते।

श्री जम्भेश्वर भगवान ने आये हुए संतो व भक्तो से कहा कि आप लोग मेरे बतलाए हुए २९ धर्म नियमों का पूर्णतया पालन करते रहो, मैं आपको "जीया न जुगति व मूवा न मुक्ति" प्रदान करुंगा । अर्थात सुखपूर्वक जीवन व्यतित करते हुए अन्त में मुक्त स्वरुप होकर परमात्मा मिल जाने की विधि बताऊंगा । सभी प्रकार के व्यक्ति, चाहे धार्मिक अथवा अधार्मिक, सुखपूर्वक जीवन व्यतित करने की इच्छा तो अवश्य ही करते है।
जो व्यक्ति सत्संग आदि में जाकर परलोक व आत्मा कि नित्यता के बारे में विश्वास रखता है, वह मुक्ति की भी इच्छा रखता है।

श्री जम्भेश्वर भगवान ने मानव जीवन को सर्वांगपूर्ण्, सुखी व आदर्श बनाने के लिए २९ धर्म पालन करना अत्यावश्यक बतलाया । इन धर्मो को पालन करने से मानवता का विकास होगा तथा दानवता का र्‍हास होगा।

आज विशनोई धर्म को स्थापित किए ५०० वर्ष पूर्ण हो चूके है । हम सभी संतगण व ग्रुहस्थ सज्जन्, उस दिन की स्म्रुति में यहां समराथल धोरे पर इकठ्ठे हुए है। हमें सभी को आज पुनः प्रतिज्ञा करनी है कि २९ धर्मो को पूर्णतया प्रसन्नतापूर्वक पालन करते हुए मानव्-जीवन को आदर्शमय व सुखमय बनायें।

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